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Wednesday, September 1, 2010

आजकल अखबार और टी. व्. पर छाया है पाकिस्तान. उनके खिलाडियो ने धांधली की है और देश के सम्मान को बेचा है.वोह बाढ़ आई हुई है और भारत मदद करना चाहती है जो उसे चाहिए तो पर मानाने को तैयार नहीं है लेने को . भारत ने सहायता की राशी भी बढ़ा दी है.

इन दोनों बातो को सांस्कृतिक विचार से सोचिए. आज संस्कृति में पैसा का महत्वपूर्ण हिस्सा हो गया है.क्रिकेट में ही एसा किउ हो रहा है?
संस्कृति पर दरअसल सभ्यता की पकड़ जाएदा है. आज सभ्य बनने के लिए अमीर बनना ज़रूरी है. यह पाकिस्तान ही नहीं पूरा  विश्व इस बीमारी की चपेट है. इसके लिए मच्छड़ो की भी ज़रूरत नहीं है यह तो अपने आप देखा देखी बढ़ जाता है.खिलाडी बेईमान नहीं है खेलना जानते है और यह भी जानते है की में हू तभी देश है.क्रिकेट ही किउ हर क्षेत्र में येही हाल है. राज नेता हो या पत्रकार,समाज सेवक हो या व्यापारी .सब जगह येही हाल है दूसरो की चोरी अपराध है और अपनी  चालाकी. जो भी कमजोर हुआ वोह मरा. जिसको जहा दाव लगा वोही ले मारा.गरीब भी छोड़ता  नहीं है. गरीब भी अमीरों को नहीं छोड़ता और अमीर तो अमीर बना ही इस गुण से .

संस्कृति पर सभ्यता हावी होती है तभी एसा होता है . संस्कृति समाज को बचाने के लिए पुकारती है पर हम बहरे होते जा रहे है .हम दूसरो के दर्द में मज़ा लेनेवाले होते जा रहे है  और नेता ,पत्रकार.बुद्धिजीवी और लोकप्रियता प्राप्त लोग इस सब का फायेदा उठा रहे है .किउ हो रहा है यह सब? सोचिए

पाकिस्तान मर  रहा है और सारे लोग खड़े  है वसीयतनामा लेकर चीन चाहता है मुझे तो अमेरिका मुझे . अमेरिका दोनों  तरफ  है पाकिस्तान जाए तो भारत हाथ से न जाए .सोचना चीन और भारत को है  हमें सोचना है कि२१ वि सदी में विश्व का रूप कैसा चाहते है. यह भी सच है समए पूर्व की तरफ आया है .सूरज उग रहा है.उगते  सूरज के समए शांत दिमाग से सोचे नहीं तो पूरी सदी यानि पूरा दिन परेशानी में गुजरेगा.अमेरिका का क्या है. वह अगर नहीं खेलेगा तो कुच्ची में पेसाब करने की सोचेगा और करेगा भी उसने पिछली सदी में अपना रूप साफ़ कर दिया है कि चित भी मेरी और पट भी मेरी और अन्ता मेरे बाप का खैर इस पर बात कभी और

बिहार में चुनाव है और बात इस पर हो रही थी . में लालू जी पर बात करने से पहले एक बात और करना चाहता हू .में हू संस्कृति का विद्यार्थी फिर राजनीती पर किउ कर रहा हू बात और अगर करनी ही थी तो मंच पर नाटको के ज़रिए करता जैसा कि आज तक करता रहा और मन मिया मिट्ठू बना रहता. गंभीर बात है मेरी ज़न्दगी काऔर शायद मेरे दोस्तों को अच्छा नहीं लगे . नाटक जागरण का मंच था और जन नाटय मंच ने इसमें महतवपूर्ण भूमिका निभाई है . समय बदल गया है या मुझे एसा लगता है . नाटक निर्देशकों कि आत्म संतुस्ती और कलाकारी के बायोडाटा का काम कर रहा है . वक़्त है हथोरा का सुनार के सो चोट से गहने बनाए जा सकते है पर उसके लिए सोना चाहिए अब तो लोग लोह्पुरुष है और लोग जागरूक होकर सोने का बहाना बनाते है .खैर में जैसा भी हू वैसा ही हू. किउकी.................................. किउकी हू

लोकतंत्र . एक था लोकतंत्र. वैशाली में . बुद्ध को बहुत पसंद था. उसने भी  इसकी चर्चा  की है गुणी लोग मुझ से इस बारे में जाएदा जानते है. राजा को जनता चुनती थी

लोकतंत्र. एक है लोकतंत्र. २० वी शताब्दी का.लिंकन को बहुत पसंद था.राष्ट्रपति  जनता के लिए जनता के द्वारा

लोकतंत्र. शायद एक होगा लोकतंत्र. कोंग्रेस का लोकतंत्र. अध्यक्ष द्वारा प्रधान मंत्री का चुनाव. भारत में इसकी नीव पड़ी है
बिहार के चुनाव से इसका लेना देना नहीं है.बिहार अभी भी पहले लोकतंत्र को मानती है.वैशाली का लोकतंत्र. तभी जाति का महत्व हो जाता है. गलती से ही सही लालू जी इसी परंपरा के चमत्कारी नेता है.गलतियो को गुणों में बदल देना उन्हें आता है.  अगर एक समुदाए अलग होता है तो दूसरे को जोड़ लेते है.देखना है इस बार उनका क्या असर होता है? मारा हुआ हाथी भी लाख का पर लालू जी तो अभी मरे भी नहीं है और बुधि भी सही सलामत है. मुखोटो में उनका मुखोटा हसमुख और मजाकिया है जो सहजता का चोला पहन रखा है             

    

Friday, August 27, 2010

मन बहुत उदास है. उदासी का सबब तो नहीं पता पर मन करता है सब कुछ उलट पुलट कर दू , पर उस से भी कुछ होगा तो नहीं उदासी को उलट भी दूंगा तो दास ही रहूँगा दासत्व के बोझ से कैसे निकलू दासत्व भी एक ताकत तो नहीं?

 अपने मन के दास बना रहना प्रकृति का  एक निएम है ज्ञानी लोग अपने ज्ञान से इस पर काबू बनाए रखते है और समुद्र की भाति मन में सब रहस्य को समेटे जीवन  की नैया चलाते रहते है, पर में एसा किउ नहीं कर पाता, मुझे ख़ुशी  और दुःख  बहुत जल्दी किउ परेशां करते है?इसका भी कुछ लेना देना है क्या अपनी संस्कृति से ?
बहुतो से बात हुई और सब का कहना है आप हर बातो को दिल से लगा लेते है हमारे गावो में भी मेरे जैसे लोग रहते है वो भी बहुत जल्दी खुश हो जाते है और नाराज़ भी.  इतने सालो में भी मेरा  शहरीकरण नहीं हुआ क्या? अरे अब तो गाव में  भी शहरी हो गए है. नहीं?  यह भी शायद व्यवाहरिक जीवन से हट कर सपनो में जीने का फल है . तो क्या संस्कृति से जुडा रहना ठीक नहीं? या फिर अपनी संस्कृति  का दिखावा करते हुए सभ्यता का मज़ा लूटना ही जीवन है? खैर जो भी हो यह पीर सिर्फ मेरा नहीं हो सकता? येही पीर तो कबीर को भी रही होगी, रहीम को भी रही होगी उन्होंने अपनी रचनाओ में अपने दर्द को रखा. मेरा  दर्द उतना गहरा नहीं है किउकी में मुक्तिबोध का वो क्रन्तिकारी हु जिसकी कांख भी दबी है और मुठी भी तनी है,भले कांख के नीचे कुछ भी नहीं.

राजनेतिक तौर पर आज हर बिहारी उदास है. पर करे  क्या?चुनाव का वक़्त आ गया है बिगुल बजने लगे है. डंके की आवाज़ आने लगी गई है . मेरे एक मित्र  ने बताया की सेना भी सज चुकी है यानि कौन सिपाही कहा से खड़ा  होगा इसका भी निश्चय हो चूका है बस शंखनाद होना बाकी है .

में इस पर टिपण्णी नहीं करना चाहता कि कौन जीत सकता है और कौन हार ,पर एक जागरूक बिहारी होने के नाते यह तो सोच ही सकता हू कौन क्या लगता है .लगता है इसलिए बोल रहा हू क्योकि  रणभूमि में सब नकाब में है. सब के चहरे पर सुनहला और हसता हुआ नकाब है. 
समय बदल गया है. अब पार्टी कि बात बेमानी है अब तो नेताओ  कि बात कि जाए .नितीश कुमार बाढ़ से उपजे सूखे के राजनीतिकर .पढ़े लिखे, हसमुख और अफसरों कि राजनीती करनेवाले व्यक्ति.इनके समय में काम होता हुआ दिखाई देता है .अफसरों कि चलती भी बहुत है.इस वज़ह से अपनी पार्टी में यह अकेले मुख्या पात्र है किउकी इनके आलावा कोई है तो ,तो है अफसर .नरेन्द्र मोदी का बिहारी संस्करण लगते है सिर्फ इनके  पीछे कोई गोधरा कांड नहीं जुडा है. यह हिन्दू मुस्लिम के लड़ाई में नहीं परते यह मुस्लिम को मुस्लिम से लडाते है और हिन्दू को हिन्दू से. जाति के समीकरण में कमज़ोर है पर इन्होने बहुत सी जातिया ही तोड़ डाली है  यह जाति परंपरा को नहीं बल्कि जाति को तोड़ना जानते है या एसा प्रतीत होता है. इस मामले में एह मज़ा ले लो पार्टी है कल जो होगा देख लेंगे. यह भी जय प्रकाश नारायण के जेहाद से निकले नेता है और लालू विरोध लहर से उपजे मुख्या मंत्री या यूकि राज्यपाल बूटा सिंह कि गलत नीतिओ और भार्ष्ठाचारो से  उपजे .लालू प्रसाद भी एसे ही कारणों से मुख्या मंत्री बने थे उस समय विश्व नाथ चंद्रशेखेर और देवीलाल  का खेल था.
नितीश कुमार में चमत्कार या आकर्षण तो नहीं है पर आत्मविश्वास के धनी है अउर  भाग्य के भी.
   
       

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अशोक का राजा बनना भी हमारी संस्कृति का अहम् हिस्सा है. इतिहासकार बताते है की उसके काल में मौत की सजा नहीं दी जाती थी और पशुबलि पर मनाही थी. हिंसा कभी भी हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं रही और यह हमारी सबसे बड़ी ताकत है. गाँधी ने इस बात को समझा और हमारा स्वतंत्रता आन्दोलन भी इसका एक प्रमाण है. हमारी संस्कृति का ५००० साल से लगातार जीवित रहना इसी ताकत की देन है. सरलता, सादगी और सच्चाई हमारी पहचान है. बुद्ध को इसी बात का ज्ञान गया में हुआ. सुजाता का खीर इसी का प्रतिबिम्ब है. समय के साथ सब कुछ बदल जाता है नहीं बदलता तो सिर्फ यह मूल्य. बिहारी होने के नाते हमारा क्या कर्तव्य नहीं हो जाता कि इस धरोहर को बचा कर रखे?

राजे राज्वारे ख़तम हो जाते है सुख के साथ साथ दुःख भी ख़तम हो जाते है, पर  समाज को तो जीवित रहना है . मेरी पीढ़ी ने सिर्फ टूटना ही देखा है जुडा है तो सिर्फ जर्मनी. हम भी टूट रहे है झारखण्ड आज हमसे अलग है बोलते है विकास के लिए ज़रूरी है टूटन हो भी सकता है. पर एसा दिखता तो नहीं. जिसे दिखता है उनके आँखों पर शायद कुछ अच्छा ही चश्मा लगा होगा. सांस्कृतिक तौर पर आदिवाशी हमारे समाज के महत्वपूर्ण हिस्सा रहे है. उनका चुल्लाह अलग कर देने से ही समस्या हल हो जाएगी क्या?

लोकतान्त्रिक चुनाव आ रहा है बिहार में. नगाड़े कि आवाज़ सुनाई पर रही है. सारी पार्टियो का अपना अपना शिव है और उनकी मंडली .सभी शिव के अपनी अपनी मंडली है. महाशिव बनने के लिए युद्ध होनेवाला है. इस शिव के तांडव पर विचार करने की ज़रूरत है. किस तरह करे  विचार? सभी शिव की विवेचना कर के? लोगो को आधार मान कर? विकास को मुद्दा मान कर? जातियो का समर्थन से?  किस तरह?
चलिए, शुरुआत करते है जातियो से, येही सब से बड़ा आधार रहा है पत्रकारों के लिए

जाति हमेशा थी और रहेगी.  हर पार्टी में हर जात के लोग है. करीब करीब हर जात के लोग मुख्या मंत्री भी रह चुके है , पर भला तो किसी जात का नहीं हुआ . भला जात का होता भी नहीं और कोई भी नेता जात जात बोलता भी नहीं
यह हमारे पत्रकार बंधू  लगे रहते है चूरन बनाने में. माना  की चूरन अच्छा और जल्दी बिकता है खाने में भी अच्छा लगता है पर मत भूलिए चूरन जेदा दिन नहीं चलेगा. जनता को समझिए नहीं तो दिन दूर नहीं जब पत्रकारों की इज्ज़त भी................... हाँ

एक थे प्रभाष जोशी .नेक इंसान.अछे पत्रकार. उच्चे विचारक. नहीं रहे, पर उन्होंने जो पत्रकारों  को बिकते हुए देखा उससे बहुत ही दुखी हुए और सोचा था की इसके खिलाफ आवाज़ उढाई जाए, पर वो ही नहीं रहे. कोई बात नहीं

इस संग्राम में तीन चार  मुख्य शिव है नितीश कुमार,लालू प्रसाद यादव और कोंग्रेस में राम विलास पासवान को नहीं लिखा किउ की वो तो हनुमान बन गए है लालू जी का नितीश जी के पास इन ५ सालो का काम है लालू जी के पास जातियो का जोड़ है और कोंग्रेस के पास माँ है











 
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Thursday, August 26, 2010

अशोक का राजा बनना भी  हमारी संस्कृति में एक बड़ा योगदान रहा है.पाटलिपुत्र पहला देश बना जहा मौत की सजा नहीं थी. जहा बलि की मनाही थी. इतिहास के उस दौर में यह बड़ी बात थी. आज भी उसका अनुशरण करने की ज़रूरत है. नफरत का जवाब नफरत हमारी संस्कृति का कभी भी हिस्सा नहीं रहा है. येही कई वज़हो में से एक मख्य वज़ह है की हमारी संस्कृति आज तक जीवित है. इसके कई मिसाल दी जा सकते है , पर उसकी ज़रूरत नहीं समझता.सादगी और सरलता हमारी संस्कृति की पहचान है और रहेंगे. बुद्ध ने शायद इसी की खोज की थी और अशोक ने इसी का विस्तार किया. सुजाता सरल और सादगी की ही प्रतिक है और उसका खीर ही उसकी मिठास है. आज भी यह हमारे खून में बसा है. जहाँ भी सादगी,सरलता और सच्चाई दिखती है हम उसकी तरफ खिचे chले जाते है.
   

Wednesday, August 25, 2010

Bihari culture

बिहार के बारे में बहुत कुछ लिखा जाता रहा हैं. कुछ सही कुछ मंगरंथ . आज का बिहार बहुत बदला हुआ है. कुछ लोग इसे मिथला से जोड़ कर देखते है तो कुछ लोग भोजपुर से , पर सोचनेवाली बात यह है कि क्या बिहार कि संस्कृति सिर्फ इन्ही दो भाषाओ  कि संस्कृतियो से जुडी है? मगध भी बिहार का अभिन्य अंग रहा है.मगध के इतिहास के बारे में सब लोग जानते भी है और बात भी होती है. अब तो नालंदा में विश्व स्तर का एक ज्ञान का एक केंद्र भी बनाया जा रहा है. इसके लिए चाहे प्रणव मुखर्जी का प्रयास रहा हो या नितीश कुमार का है तो यह महत्वपूर्ण . अगर बुध्ह के समए को ही शुरुआत मान ले बिहार की संस्कृति का तो भी सोचा जाना चाहिए की जिस परिवेश और जगह ने राहुल को गौतम बुध बना दिया, उस जगह की हालत एसी किउ हो गई या फिर प्रतेक कुछ सालो के बाद एसी हालत किउ हो जाती है ?

में तो जाएदा पढालिखा आदमी नहीं हु पर अपने घर के बारे में तो हरकोई सोचता है उसी तरह में भी सोचता हु. क्या है हमारी संस्कृति?कौन है हमलोग? सोचता हु और परेशां हो जाता हु. सोचा किउ नहीं अपने जैसे और लोगो को परेशां करू.और आज मेरा ब्लॉग पर जनम हो गया. 
में अपनी संस्कृति की शुरुआत चलिए सूर्य की पूजा से करता हु यानि उस पूजा से जो सब से जाएदा लोकप्रीया  है और सब वाकिफ है. क्या होता है उसमे? सब से पहले डूबते सूर्य को अर्ध्य देते है. है न? यानि जानेवाले को नमन यानि बुजुर्गो का सम्मान. अगर इतनी  भी समझ में आ जाए  तो राज्य का और देश का भला हो जाए. पर लगता नहीं है की शिकारी आएगा दाना डालेगा लोभ में फसाना नहीं रटने हुए जाल में फस जाते है? सोचिए और मेरी मदद कीजिए समझाने में अपनी संस्कृति को 
धन्वाद.